दहेज लेकर कब तक अपने बेटों को बेचेंगे लोग, फिर उम्मीद करते हैं कि एक बेटी घर आये बहू नही, कभी दर्द महसूस करो उन मां बाप का, जिनके घर बेटियां ब्याहने के लिये है, दहेज की आड़ में अच्छा कारोबार है, कभी बहू नौकरी वाली चाहिये, कभी संस्कारी बहू चाहिये, ज्यादा पढ़ी लिखी हो और चुप रहने वाली हो, हर ताने को सहने वाली हो, पोती नही पोते चाहिये, घर चलाने का ढंग आता हो, और नौकरी पर भी जाने वाली बहू चाहिये, कैसा ये लोभी समाज हो गया है, त्याग की मूरत तो चाहिये, मगर कभी खुद कोई त्याग करेगे नही, कभी कभी यही समझना मुश्किल हो जाता है, शादी तो एक पवित्र बंधन है, फिर क्यूँ करते हैं लोग व्यापार, बहू फोर व्हीलर वाली चाहिये, साथ साथ ढेर सारा दहेज चाहिये, और उम्मीद करते हैं , कि एक बहू नही बेटी मिलनी चाहिये, उस बेटी का दर्द क्या समझा था तब, जब बूढ़े बाप से दहेज लेकर भी, ससुर ने ये बोला था, एक एहसान कर रहे हैं, तेरे सिर् से एक बोझ उतार रहे हैं, ये शब्द जब भी याद आते हैं, उस बेबस पिता का चेहरा नज़र आता है, जिसने जीवन भर की पूंजी भी सौप दी, फिर भी डिमांड अभी बाकी है, 'उपासना पाण्डेय&