लघुकथा- अभागिन हूँ मैं

शादी के बाद ससुराल में  रूपमती ने जैसे ही कदम रखा कि काली बिल्ली रास्ता काट गयी। गावँ की बूढ़ी औरते जो खुद तो इन अंधविश्वास का शिकार थी ऊपर से,बेचारी 16 साल की कच्ची उम्र में ब्याह कर आई रूपमती इन सब बातों से अनभिज्ञ ,मगर घर मे घुसने से पहले हुए इस बिल्ली कांड ने उसका मनोबल तोड़ दिया।उसकी विधवा सास जो देखने मे जितनी भोली लग रही थी।अंदर से ही एक दम करेले जैसी कड़वी। चारो तरफ हाय तौबा मचा हुआ था। कि नई बहुरिया अपशकुनी है। रूपमती सोच रही थी कि उसने क्या किया। मग़र लोगो को कौन समझाता कि न दोष बिल्ली का था न उसका।

कही से खबर मिली कि रूपमती के पिता जी को हार्ट अटैक आ गया है।आपा धापी में उसने पिता जी की दवा देना भूल गयी थी। उसका ही प्रभाव था कि विवाह के कारण पिता जी की लापरवाही की वजह से ये अटैक आया। और रूपमती के ससुराल वालो का लांछन कि शादी होते ही कैसे सबके लिये मुसीबत बनकर आयी है।रूपमती की माँ  जन्म देते ही उसको,इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थी।बस एक बूढ़ी दादी और अपने पिता के साथ रहती थी।जीवन के इस पड़ाव में न जाने अनगिनत सपने सजाने वाली रूपमती आज इन फिजूल बातो को सुन रही थी।मैट्रिक पास  रूपमती उस जमाने मे मैट्रिक तक की पढ़ायी का बहुत महत्व था। शादी के बाद उसको एक सास नही एक मां मिलेगी, मगर ये सपना चकनाचूर हो चुका था। मग़र रूपमती की शादी की बहुत चिंता थी दादी की।बहुत मुश्किल से ऐसा परिवार मिल पाया। मनोहर बाबू लाइब्रेरी के बाबू थे।अच्छा खासा कमा रहे थे। तो रूपमती के पिता ने सुयोग्य वर के रूप में मनोहर को चुना। आज उसकी तरफ अपशकुनी होने की उंगली उठाई जा रही थी।मगर जिस व्यक्ति के लिये उसने कितने सपने संजोये वो भी मूकदर्शक की भांति ये सब देख रहा था। अपनी माँ के सामने बोलने की हिम्मत तक नही थी मनोहर में। ससुराल में आये अभी रूपमती को 2 दिन भी नही हुऐ, और सबका ये कड़ा व्यवहार देख कर मन ही मन घुट रही थी। शाम को खाना बना कर चूल्हा चौका करके आराम करने ही जा रही थी । कि पीहर से खबर आई । कि उसके बाबूजी नही रहे।

खबर सुनकर जैसे रूपमती को गहरा सदमा सा लगा कि क्या उसके बाबूजी सच मे छोड़कर चले गए। कमरे के भीतर से अम्मा के बुदबुदाने की आवाज आ रही थी मनोहर से बोल रही थी कि इसको वही छोड़कर आना ।और कभी मुहँ तक नही देखना। इसके तो कदम पड़े थे जब दहलीज पर तभी समझ गयी थी।कि ये अपशकुनी है।

सब सुन रही थी रूपमती मगर चुप बुत बन गई थी।

बैलगाड़ी आ गयी थी उसके पीहर जाने के लिये।

और कभी न वापिस  लाने का एक संकेत भी मिल गया था।

बैलगाड़ी में बैठे बैठे यही तो सोच रही थी।कि क्या वो सच मे अभागिन है।आंखों से आंसू लुढ़क कर गिरे।

मनोहर ने देखा भी मगर फिर भी कुछ नही बोला।

और रूपमती भी चुप चाप गुमसुम थी।

'उपासना पाण्डेय' आकांक्षा

हरदोई (उत्तर प्रदेश)

Comments

Popular posts from this blog

कविता-रिश्तों के भंवर में

कहानी- उम्मीद की नई किरण