कविता-रिश्तों के भंवर में

ये मेरा मन उदास सा क्यों है, सब के साथ हूँ।

मगर क्यों एक भ्रम जाल सा बन गया है।

मैंने भी महसूस किया ये बदलाव हैं।

क्यों मुझे कुछ समझ नही आता।

जितना सुलझा रही हूं ये उलझे हुऐ रिश्ते।

उतना ही उलझते जा रहे है मेरे ये रिश्ते।

किसी को छोड़ नही सकती,वो भी खास है

और ये रिश्ता भी खास है।

क्यूं मैं खुद खोती जा रही हूँ।

मेरे लिये दोनो ही रिश्ते जज्बातो से जुड़े हैं।

एक को भी खो दिया तो जी नही पाएंगे।

रिश्तों में कैद मेरी ज़िंदगी है।

खुल कर जीना चाहती हूं ज़िन्दगी अपनी।

मगर दिल की बेचैनी ने परेशान कर रखा है।

रिश्तों में खुद को उलझा रखा है।

"उपासना पाण्डेय" हरदोई( उत्तर प्रदेश)

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