मेरी कलम से

         ज़िन्दगी के दोराहे पर किस्मत


ये कहां रुक गए मेरे कदम,तुम तो साथ थे
फिर क्यों अकेले हो गये हम, तुम तो हर रोज
यही वादा करते थे कि जब तक सांसे है
तुम तब तलक साथ रहोगे,जरा सी ठोकर लगी
तो तुम भी छोड़कर चले गये, इस भीड़ में
हर रोज कितना संभाला खुद को मगर
हर रोज टूटी भी कांच की तरह और खुद को
समेट भी लेते ,मगर क्यों कोई अपना न था
हर रोज मांगी थी मैने मौत ,मगर ज़िन्दगी भी ज़िद्दी हो गयी थी
मुझे खुद ही नही पता था कि कहाँ जाना है
बस ये नाकाम सी ज़िन्दगी जीने लगे थे।
           "उपासना पांडेय(आकांक्षा)
           

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